Saturday, November 29, 2008

संस्कृति

भारतीय संस्कृति श्रेष्ट क्यों कहलाती है ऐसे कौन - कौन से गुण है जो भारतीय संस्कृति को श्रेष्ट बनाते है एवं इस देश को महान बनाते है / इस देश के लोगों की एक खासियत होती है कि यहाँ के लोग अपने दैनिक क्रिया कल्प या जीवन में धर्म का पालन करते है / एक विचारणीय बिन्दू है कि धर्म पालन का ज्ञान कहाँ से प्राप्त हो / अधिकांश मनुष्य अपने वर्तमान परिवेश में असंतुष्ट है या परेशान है / इसका का एक कारण है - उनकी नकरात्मक सोच या असंतुष्टता / यदि इस बात का सर्वे किया जाए कि ''मन की शान्ति पाने का मूल मंत्र क्या है '' तो अधिकांश का मत यही आवेगा कि - संतुष्टि से ही शान्ति का जन्म होता है / एक प्रसंग है कि - एक व्यक्ति ने यह सुनकर कि '' संतो के समागम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है'' / थोडी देर के लिए भी जो संत समागम करते है उन्हें दूगने समय के लिए स्वर्ग की प्राप्ति होती है / एक घंटे का संत समागम किया परन्तु उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हुई / वह व्यक्ति नारद जी के पास जाकर बोला की मैंने एक घंटे का संत समागम किया परन्तु मुझे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हुई / नारद जी बोले की धार्मिक ग्रंथों में पढ़ा तो मैंने भी ऐसा ही है परन्तु तुम्हें एक घंटे का संत समागम करने के बाद भी स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हुई अत चलो विष्णु जी से पूछते है कि आख़िर बात क्या है / दोनों विष्णु जी के पास गए और उनसे पूछा परन्तु बात उनके भी समझ नहीं आई / उन्होंने कहा कि चलो महेश जी से पूछते है परन्तु समाधान उनसे भी नहीं हुवा / अत चारो ब्रह्माजी के पास गए और उनसे पूछा कि - यह बात तो सही है कि संतो के समागम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है / इस व्यक्ति ने एक घंटे का संत समागम किया परन्तु इसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हुई कारण क्या है / ब्रह्माजी हँसे और बोले - तुम चिंता मत करो , सब ठीक हो जावेगा / ब्रह्माजी ने उस व्यक्ति से पूछा कि - पहले तुम यह बताओ कि तुमने संत समागम कितनी देर किया उसने कहा कि एक घंटा / फिर ब्रह्माजी ने पूछा कि - तुम नारद जी , विष्णु जी , महेश जी के साथ कितनी देर से हो उसने कहा कि लगभग पॉँच घंटे से / ब्रह्माजी ने कहा कि - मुर्ख यह बता कि तू अभी स्वर्ग में है या नर्क में / जैसे ही उसने उत्तर देने के लिए सोचा उसकी समझ में सब कुछ आ गया उसने कहा कि सत्य कहा प्रभु आपने कि संतो के समागम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है / सुख त्याग में है वस्तुओं के रखने में नहीं क्योंकि मनुष्य एक वस्तु का अभाव दूर होने पर दूसरी वस्तु के अभाव के लिए रोता है परन्तु यह मन कि तृप्ति कभी पूरी नहीं होती / कहा है कि '' समपर्ण में ही स्वर्ग है ''

Thursday, November 27, 2008

वात्सल्य

एक बार एक अध्यापक ने बच्चों को गाय पर निबंध लिखकर लाने के लिए कहा सभी बच्चे कुछ न कुछ लिख कर लाये परन्तु एक बच्चे ने अपनी नोट बुक में केवल यह लिखा कि - ''गे हमारी माता है आगे कुछ नहीं आता है'' इस पंक्ति को पढ़ कर मन में विचार आया कि गाय को माता क्यों कहते है , भैंस को क्यों नहीं /
मन में एक विचार आया कि शायद गाय का बच्चा ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो सवर्प्रथम हमें अम्मां कहना सिखाता है /
दूसरा विचार आया कि गाय का बच्चा भगवान 'रिषभदेव' और 'महादेव' का प्रतिक चिन्ह है जबकि भैंस का बच्चा 'यमराज' का प्रतिक चिन्ह है /
तीसरा विचार आया कि जो वात्सल्य गाय अपने बच्चों के प्रति रखती है ऐसा अन्य नहीं रख पाते /
वात्सल्याय का एक किस्सा बताता हूँ - एक बार स्वर्ग के एक देव ने कामधेनु कि परीक्षा लेनी चाही , उन्होंने स्वयं सिंह का रूप धारण कर कामधेनु से कहा कि मैं तुझे खाना चाहता हूँ गाय ने कहा कि - महाराज ! मेरा पुत्र सुबह से भूखा है कृपा करके पहले मुझें उसे अपना दूध पिलाने कि इजाजत दो उसके बाद आप मुझें खुशी से खा लेना / यदि आपने मुझे पहले ही खा लिया तो मेरा बच्चा भूख से मर जावेंगा /
देव गाय का वात्सल्य देखकर बहुत खुश हुवे वे अपने वास्तविक रूप में आकर बोले कि - तुमने ओने प्राणों से ज्यादा अपने पुत्र कि भूख कि चिंता कि है अतः मैं तुम्हें छोड़ता हूँ / आज से तुम इस सार्ष्टि में ''गाय माता'' के नाम से पूजी जावोगी /
इसलिए गाय माता कहलाती है //

Monday, November 24, 2008

दुस्साहस

क्यों अंतर्यामी बने हुए थे , क्यों विवश किया मुझें कहने को /
क्यों संत की परीक्षा ली तुमने , क्यों कष्ट दिया उन्हें सहने को /
क्यों निष्ठुर हो गए तुम इतने , क्यों उतर रहे जग के गहनों को /
क्यों जगह जगत में कम पड़ गई , मुनि तरुण सागर के रहने को /
जो प्रचार करें जग में तेरा , जो दिन रात करें गुण गाँन तेरा /
जो जीवन सफल करें औरो का ,बालक सम ध्यान रखें मेरा /
जो बंधन काटे जीवों का , क्यों उसी को तुने आ घेरा /
तू रक्षक रहा सदा संतों का , क्यों आज नियम तुने फेरा /
शब्द आज मेरे कम क्यों पड़ गये , दुःख अपना बतलाने को /
क्यों मेरे गुरु को ही छांटा , वर्चस्व शल्य का दिखलाने को /
क्यां सारे काम ख़त्म हो गए ,तेरे करने और कराने को /
क्यों एक जान के पीछे पड़ा ,तत्पर लाखों जान गंवाने को /
अब तक मैंने कुछ नहीं माँगा , आज मेरा भी वचन ले लो /
दो लम्बी उम्र तरुण सागर को ,उपचार में उनका प्रण रख लो /
संत की बात मानकर तुम , मुझमें अपनी बात अडिग कर दो /
तुम अपनी सोची छोड़ दो अब , मेरी एक बात तुम भी रख लो /
कुछ प्रयास वैध तुम भी कर लो , कुछ दुवा आज में करता हूँ /
सामर्थ्य संत में भी कम नहीं , कुछ दुस्साहस आज मैं करता हूँ /
कुछ अधिक तो मेरे पास नहीं , जो है वह अर्पित करता हूँ /
यह जन्म संत पर न्योछावर , सौ जन्म मैं गिरवी धरता हूँ /
बात थोडी यहाँ उलझ गयी , जो दूर से शायद ना समझ पाओ /
बिना संत हम कैसे जिए , जरा आकर तो तुम समझाओ /
वह निर्लिप्त तेरे ही सम होगा , थोड़ा तो बड़प्पन दिखलाओ /
संत बचाना हमें आता है , एक बार स्वयं यहाँ पर आओ //
रचियता -
श्री हनुमान सिंह गुर्जर

संयम

संसार में कोई भी व्यक्ति न तो पूर्ण रूपेण सुखी है और न ही पूर्ण रूपेण दुखी / इस संसार में सभी व्यक्ति को कोई सुख है तो साथ में कोई दुःख भी , तभी तो हर व्यक्ति इस संसार रूपी सागर से तिरना चाहता है / इस संसार रूपी सागर से तिरने के लिए व्यक्ति के जीवन में संयम का होना जरूरी है / संयम का संधि विच्छेद है - सम् + यम् ( सम् = पूर्ण रूप से , यम् = रोकथाम ) अथार्त विषय वासनाओ में रत अपनी इन्द्रियों व् मन को रोकना / उन पर विजय प्राप्त करना / संयम का प्रारम्भ व्यक्ति के स्वयं के जीवन से होता है / एक संयमी व्यक्ति ही दुसरे को संयम का पाठ पड़ा सकता है / एक कहावत है कि '' जलता हुवा दिया ही बुझे हुए दीये को जला सकता है '' / एक रोचक प्रसंग है कि - एक बार एक व्यक्ति अपने पुत्र को साथ लेकर एक महात्मा के पास आया और कहा कि यह मेरा पुत्र रोज़ गुड खाता है नहीं देने पर रोता है लडाई झगडा करता है बस आप इसके ये आदत छुड्वादें / महात्मा ने कहा एक महीने के बाद आना तब उपाय बताऊँगा /एक माह बाद महात्मा ने बालक को गुड नहीं खाने के बारे में बताया और बालक ने वास्तब में गुड खाना छोड़ दिया /उस व्यक्ति से रहा नहीं गया उसने महात्मा से पूछा -यदि आपके इतने से कहने मात्र से इस बालक ने गुड खाना छोड़ दिया तो आपको यह उपदेश उसी दिन दे देना चाहिए था ,एक माह इंतज़ार करने की जरूरत क्या थी /महात्मा ने कहा -जो व्यक्ति स्वयं गुड खा रहा हो उसे दूसरों को गुड गुडे का परहेज़ नहीं बताना चाहिए /इसलिए पहले मैंने स्वयं गुड खाना छोड़ा तब इस बालक को उपदेश दिया /संयम कहने का नहीं करने का विषय है ,यह बोलने का नहीं पालने का विषय है /

Thursday, November 20, 2008

ये जीवन है दो पल का , ढिकाना है नहीं कल का



नरतन रतन है अनमोल



जीवन है पानी की बूंद कब मिट जावे रे



होनी अनहोनी कब क्या घाट जावे रे



नही ढिकाना



Wednesday, November 19, 2008

णमोकार मन्त्र

णमोकार मन्त्र किसी जाती विशेष या समुदाय का मन्त्र नहीं है यह बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय है इसमें कोई
ऐसी बात नहीं हैजो किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष के हित में हो =प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी मजहब से सम्बन्ध रखता हो इसका जाप -पाठ करके लाभान्वित हो सकता है /अरिहंताणाम अर्थात हम उनको नमस्कार कर रहे है जिन्होंने अपने शत्रुओं का नाश कर दिया है आप जानते हैं की मनुष्य के शत्रु काम क्रोध लोभ मद ,अंहकार है इनके नाश करने या इन पर वियज प्राप्त करने वाला पूजनीय है ही हम इनको नमस्कार करते है तो ये किसी सम्प्रदाय से ताल्लुक नहीं रखता है